रोटी और टोस्ट

रोटी और टोस्ट 

रोज़ सवेरे मैं उठा तो देखा अभी 5:30 ही हो रहे है, टहलने जाने में आधा घंटा बाकी है। मैं उठा, अंगड़ाई ली और ट्रैक सूट पहन कर कदमताल करते हुए निकल पड़ा। हर बार की तरह टोस्ट का पैकेट हाथ में लिए अपना कुत्तों को खिलाने का शौक पूरा करते जा रहा था।  टोस्ट फेकते हुए अपने आप को कोई राजा या कहीं के प्रधानमंत्री से कम नहीं महसूस कर रहा था।  तभी अनयास ही नज़र रोड के किनारे में एक झुग्गी पर पड़ी।  खुले आकाश के नीचे लेता एक बच्चा रो रहा था और उसकी माँ चूल्हे पर रोटियाँ बना रही थी, वो एक हाथ से चिमटा लेकर रोटी हिलाती और दूसरे हाथ से अपने बच्चे को थपकी देकर चुप कराती।  ये सब मैं देखता-देखता आगे बढ़ गया और टोस्ट फेकने का काम बदस्तूर जारी रहा। लेकिन अब वो मजा नहीं आ रहा था, दिमाग अब बार-बार उस बच्चे और उस महिला की तरफ जा रहा था। पता नहीं क्या मजबूरी होगी उसकी जो अपने बच्चे को चुप नहीं करा पा रही थी।  इतनी सुबह-सुबह आखिर रोटी कौन बनता है। शायद दिन भर मजदूरी करती होगी, पर बच्चा तो फिर भी बच्चा ही है, उसको क्या पता कि अगर आज माँ काम पे नहीं जाएगी तो अगले दिन ये चूल्हा कैसे जलेगा।






Comments

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  2. और अगर मै उस मा को टोस्ट दून्गा तोह कुत्ते के कौन खिलायेगा ?

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    1. baat kiske kya karne ki nahi hai. humara samaj widambanao se bhara hua hai, kahi khana barbaad ho raha hai to kahi khane ke laale pade hue hai. in sab se nikalne ki koshish karni hogi humko nahi to growth aur development ke naam pe kuch haath aane waala hai nahi.

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