कॉमिक्सों की दुनिया

कॉमिक्सों की दुनिया 

 

 बचपन से मुझे पढना प्रिय रहा है हालाँकि वो बात अलग है कि मै पढाई की किताबों से ज्यादा कहानियाँ और कॉमिक्स पढ़ता था। कहानियों की एक बात मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगाती थी वो कि उनमें  रंगीन चित्र नहीं होतें थे और घूम फिर कर वही अकबर-बीरबल, मोगली आते रहते थे। इसके उलट कॉमिक्सों की दुनिया में वो सब कुछ थे जो मुझे अच्छा लगता था, तरह-तरह के किरदार- नागराज, ध्रुव, डोगा आदि और हाँ सबके प्यारे चाचा चौधरी, हर पन्ने पर इनकी रंगीन तस्वीरें जिन्हें मै आँखें फाड़ कर देखा करता था। मेरी माँ की माने तो मुझे चश्मा इसी वजह से लगा है। 
Nagraj, a sketch by me


               

अब जब बात कर ही रहे हैं तो पहले ये बताना जरुरी है की ये कॉमिक्स आती कहाँ से थी? दरअसल तब कुछ दुकानदारों ने कॉमिक्स किराये पर देनी शुरू करी थी जिनसे जुड़ने के लिए शायद कुछ "सिक्योरिटी" भी लगती थी ताकि यदि कोई कॉमिक्स वापस न करने आये तो दुकानदार को नुकसान न हो। मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है साधारण कॉमिक्स 90-100 पन्नों की 1-2 रुपये में किराये पर मिलती थी वहीँ कुछ 300-400 पन्नों वाली 5-10 रुपये की मिलती थीं। 
कॉमिक्स लाने  तक से पढ़ने और वापस लौटने तक के न जाने कितने हथकंडे अपना चुके थे हम (मैं और मेरा छोटा भाई) लोग। चुपके से माँ से पैसे माँगना या फिर जिस दिन पापा का मूड अच्छा हो तो उनके ही साथ कॉमिक्स की दुकान पे धमक जाना, लेकिन अधिकाँशतः ये काम 'टॉप सीक्रेट' होता था क्यूंकि अगर इस बात की भनक दूसरे बच्चों को लग गयी तो बिना लड़ाई के समाधान संभव नहीं था- आखिर कॉमिक्स तो सबको पढ़नी है और समय है मात्र एक दिन। 

इस बात को ध्यान में रखते हुए मोहल्ले की गली शुरू होने से पहले ही कॉमिक्स शर्ट के अंदर छुपा ली जाती थी।  जैसे तैसे तो घर पहुँचते थे लेकिन यहां तो एक और विकराल समस्या मुँह फैलाये खड़ी होती थी, नाम था गणित।  शाम होते ही पिताजी हम लोगों को गणित के प्रश्न हल करने दे देते और खुद टीवी पर न्यूज़ देखते थे, हम चाहें कितनी नाक-भौ सिकोड़ लें लेकिन सवाल तो हल करने ही थे।  अब सवाल करे जाए या या कॉमिक्स पढ़ी जाए बड़ी मुश्किल। इस धर्मसंकट से निकलने के लिए हमने दो तरीके अपनाये, एक तो हमने गणित पढ़ना शुरू कर दिया और दूसरा अपने पढ़ने की रफ़्तार बड़ा दी।  इसका काफी फायदा भी मिला हमें, अब हम कॉमिक्स कॉपी के ऊपर रख कर घुटने मोड़ के बैठ जाते और जल्दी-जल्दी पढ़ते जाते। जैसे ही पिताजी का दिया गया समय पूरा होता फटाफट सवाल हल कर के दिखा देते।  

इन सब सब कलाकारियों के बाद भी कॉमिक्स अगर बच जाती तो लौटाते समय भारी निगाहों से पलट-पलट के निहारते रहते।  बचपन के सपनों के से दिनों की सपनों सी दुनिया, जिनमें कभी डूबने से नहीं थकते थे आज वे जरा अधूरे और टूटे हुए से लगते है।  पता नहीं कहाँ गायब हो गए वे दुकानदार, कॉमिक्स पड़ने वाले बच्चे, आपको मिले तो बताइएगा ज़रूर।  ख़ैर कुछ ऐसी है हमारी और 'कॉमिक्सों की दुनिया' की यादें जो अब कितनी ही इंजीनियरिंग की किताबें पढ़ लो लेकिन जेहन से जाती ही नहीं।  

- एक "कम-अकल' की कलम से 


Comments